बाल विकास एवं शिक्षा शास्त्र :- सतत एवं समग्र मूल्यांकन CCE


व्यक्तित्व , व्यक्तित्व की परिभाषाएं , प्रभावित करने वाले कारक, व्यक्तित्व का मापन, व्यक्तित्व के प्रकार
सतत एवं समग्र मूल्यांकन CCE

(Continuous and comprehensive evaluation)

CCE की सबसे पहले सिफारिश राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के द्वारा की गई थी तथा लागू NCF 2005 के द्वारा लागू किया गया ।


सर्वप्रथम गीता भुक्कल समिती ने 2009 में CCE कक्षा 9 में तथा 2010- 11, में कक्षा 10 में अपनाने पर बल दिया।


सीबीएसई ने 2010 -11 में कक्षा 9 तथा 10 में cce प्रणाली अर्थात सतत एवं समग्र मूल्यांकन प्रणाली को लागू किया


सीबीएसई ने स्पष्ट संदेश दिया कि मूल्यांकन करते समय विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखा जाना चाहिए।


सतत एवं समग्र मूल्यांकन का "समग्र" शब्द बच्चे के व्यक्तित्व  का सर्वांगीण विकास के निर्धारण का ध्यान रखता है इसमें विद्यार्थियों के विकास के शैक्षिक और सह शैक्षिक पहलुओं का निर्धारण शामिल है।


शैक्षिक पहलू अर्थात पाठ्यक्रम

सहशेक्षिक अर्थात जीवन - कौशल , अभिवृतियो , और मूल्य शामिल है

CCE में शैक्षिक एवं सहशेक्षिक पहलुओं का ध्यान रखा जाता है। यदि कोई किसी क्षेत्र में कमजोर है तो नेदानिक मूल्यांकन किया जाता है
और उपचारहेतु उपाय किए जाते हैं।



NCF 2005 के important नोट्स के लिए यहां click करें
CCE का आकलन दो प्रकार से होता है

  1. निर्माणात्मक आकलन ( फॉर्मेटिव एसेसमेंट)
  2. योगात्मक आकलन ( SUMMATIVE ASSESSMENT)

1- निर्माणात्मक आकलन- 
इसे 'सीखने के लिए आकलन' भी कहा जाता है। इसका मुख्य प्रयोजन छात्रों को वह रचनात्मक प्रक्रिया प्राप्त करने में सक्षम बनाना है जो उन्हें बेहतर सीखने और प्रभावी प्रगति करने में उनकी मदद करेगी।
  • इसका उपयोग सीखने की प्रगति के लिए किया जाता है
  • यह छात्रों को आगे चलते जाने और सीखने में प्रगति करने के लिए मार्ग बताता है
  • यह पहचान करता है कि-
-छात्र क्या कर सकता है क्या नहीं
-छात्रों को क्या कठिन लगता है क्या नहीं
-लक्ष्य तक पहुंचने के लिए क्या आवश्यकता है
  • निर्माणात्मक आकलन को औपचारिक होता है यह नैदानिक व सुधारात्मक होता है यह सत्र में 4 बार आयोजित होता है

2-योगात्मक आकलन-
इसे 'सीखने का आकलन' के नाम से भी जाना जाता है। इसका मुख्य प्रयोजन छात्रों की उपलब्धि और कार्य प्रदर्शन की पहचान करने में सक्षम करना है जिसमें सीखने की अवधि 1 सत्र या 1 वर्ष हो सकती है
  • इसका उपयोग आमतौर पर एक छात्र की अन्य छात्रों के समक्ष तुलना करने के लिए किया जाता है
  • इसका उपयोग विद्यार्थी के उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण के परिप्रेक्ष्य में किया जाता है
  • यह औपचारिक होता है
  • यह 3 घंटे की लिखित परीक्षा होती है तथा सत्र में दो बार आयोजित की जाती है
इसके द्वारा सत्र के अंत में विद्यार्थी के प्रदर्शन का अंतिम आकलन किया जाता है           

परीक्षा का आयोजन

(अप्रैल से सितंबर)।                           ( October se March)
FA -1  = 10%                                      FA-3   = 10%
FA-2   =10%                                       FA-4 = 10%
SA-1   =30%।                                      SA -2 = 30%

विशेष-  1 वर्ष में चार रचनात्मक व दो योगात्मक मूल्यांकन होते हैं 

CCE grading system

A 1  =  91- 100
A2  =   81-90
B1  =   71 - 80
B2  =   61- 70
C1  =   51- 60
C2  =   41 - 50
D   =   33 - 40
E1  =  21 - 32
E2  =  21 से कम

  • सतत मूल्यांकन शिक्षार्थी की कमजोरियों का निदान व उपचार करने का कार्य करता है अध्यापक यह फैसला कर सकता है कि कोई विषय यूनिट अथवा संकल्पना समूची कक्षा को फिर से पढ़ाई जाने की आवश्यकता है अथवा केवल कुछ शिक्षार्थियों को ऊपचारी शिक्षा की आवश्यकता है ।
  • सतत मूल्यांकन द्वारा बच्चे अपनी शक्तियों और कमजोरियों को जान सकते हैं।
  • यह विषयों, पाठ्यक्रमों और जीवन व्रतियों (केरियर) के चुनाव के बारे में भविष्य के लिए फैसले करने में सहायता देता है
  •                               निदानात्मक परीक्षण
  • ऐसे परीक्षण जिनके द्वारा विद्यार्थियों की कमजोरियों कठिनाइयों एवं समस्याओं का पता लगाया जाता है। निदानात्मक परीक्षण कहलाते हैं।
  • उपलब्धि परीक्षा किसी भी विषय का समग्र मूल्यांकन करती है जबकि निदानात्मक परीक्षा उस मूल्यांकन का विश्लेषण करती है
  • निदानात्मक परीक्षण के द्वारा किसी विषय विशिष्ट में उपलब्धि की कमी का पता लगाया जा सकता  
निदानात्मक परीक्षण के प्रकार

  1. व्यक्ति केंद्रित- इस परीक्षण में बालक विशेष की कमजोरी का पता लगाया जाता है।
  2. समूह केंद्रित- इसमें विशिष्ट समूह की सामूहिक त्रुटियों तथा कमजोरियों का पता लगाया जाता है।

उपचारात्मक शिक्षण
  • छात्रों द्वारा की जाने वाली त्रुटियों के निवारण अर्थ समुचित शिक्षण प्रक्रिया अपनाना ही उपचारात्मक शिक्षण है। शैक्षणिक निदान एवं उपचारात्मक शिक्षण एक ही शिक्षण प्रक्रिया के दो अभिन्न पहलू हैं। एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व निरर्थक है। शैक्षिक निदान ही उपचारात्मक शिक्षण की आधार भूमि प्रस्तुत करता है



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